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ग़ज़ल
आज तशरीफ़ गुलिस्ताँ में वो मय-कश लाया
कफ़-ए-नर्गिस पे धरा क्यूँकि भला जाम न हो
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
इन्हीं लोगों के आने से तो मयख़ाने की अज़्मत है
क़दम लो शैख़ के तशरीफ़ लाए बादा-ख़्वारों में
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
तो वो अंदाज़ जैसे मेरा घर पड़ता हो रस्ते में
पए-इज़हार-ए-हमदर्दी वो जब तशरीफ़ लाए हैं
शाद आरफ़ी
ग़ज़ल
बने हैं शैख़-साहिब नक़्ल-ए-मज्लिस बज़्म-ए-रिंदाँ में
जहाँ तशरीफ़ ले जाते हैं हज़रत बन के आते हैं
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
बड़ी तशवीश फैली है वतन के तारकीनों में
उन्हें मिलती हैं सौ सौ धमकियाँ दो दो महीनों में