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ग़ज़ल
इस इश्क़ ओ जुनूँ में न गरेबान का डर है
ये इश्क़ वो है जिस में हमें जान का डर है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
जब नबी-साहिब में कोह-ओ-दश्त से आई बसंत
कर के मुजरा शाह-ए-मर्दां की तरफ़ धाई बसंत
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
वीरान हैं मोहल्ले सुनसान घर पड़े हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
पछताए हम इस शाम-ए-ग़रीबाँ से निकल कर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं
मर जाऊँ प गुलशन की तरफ़ रू न करूँ मैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
नर्मी-ए-बालिश-ए-पर हम को नहीं भाती है
दम-ए-शमशीर पे सर रक्खें तो नींद आती है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
उस के ख़त में जो लिखा ग़ैर का मैं नाम उल्टा
लाया क़ासिद भी मुझे वाँ से तो पैग़ाम उल्टा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
जल्वा-गर उस का सरापा है बदन आइने में
नज़र आता है हमें सर्व-ए-चमन आइने में