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ग़ज़ल
तब से आशिक़ हैं हम ऐ तिफ़्ल-ए-परी-वश तेरे
जब से मकतब में तू कहता था अलिफ़ बे ते से
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
सजन आवें तो पर्दे से निकल कर भार बैठूँगी
बहाना कर के मोतियाँ का पिरोने हार बैठूँगी
हाश्मी बीजापुरी
ग़ज़ल
लड़ रहे थे जंग दोनों मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में
मैं था हक़ के साथ और वो क़ुव्वत-ए-बाज़ू के साथ
बिलाल सहारनपुरी
ग़ज़ल
گھنگھٹ جب زرزری مکھ پر تے موہن دور کر نکلے
مقابل ہوئے نا ہرگز اگر سور سحر نکلے
शेख़ अहमद शरीफ़ गुजराती
ग़ज़ल
محبطی ہوی مجھ جب تے یگانا کیا بگانا کیا
ڈسیا یکساں مجے تب تے سیانا کیا دوانا کیا