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ग़ज़ल
मयस्सर आ चुकी है सर-बुलंदी मुड़ के क्यूँ देखें
इमामत मिल गई हम को तो उम्मत छोड़ दी हम ने
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल
ख़ुल्द का इक दर है मेरी गोर के अंदर खुला
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ऐ बे-दरेग़ ओ बे-अमाँ हम ने कभी की है फ़ुग़ाँ
हम को तिरी वहशत सही हम को सही सौदा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
सारे रिंद औबाश जहाँ के तुझ से सुजूद में रहते हैं
बाँके टेढ़े तिरछे तीखे सब का तुझ को इमाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
रुख़-ए-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहर-ओ-मह नज़रों से यारों की उतर जाएँगे