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ग़ज़ल
'आरज़ू' अब भी खोटे खरे को कर के अलग ही रख देंगी
उन की परख का क्या कहना है जो टेकसाली आँखें हैं
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
है जुर्म यहाँ आरज़ू-ए-सुब्ह-ए-दरख़्शाँ
हर रात से ऐ दोस्त मिरी रात अलग है
नादिम अशरफी बुरहानपुरी
ग़ज़ल
अल्लह अल्लह एक ज़र्रे की भी हद मिलती नहीं
रंग हो नक़्क़ाश का इतना तो हर तस्वीर में
बेख़ुद मोहानी
ग़ज़ल
मक़्सद-ए-ज़ीस्त ज़रा तू ही सदा दे उन को
तुझ से हो के जो अलग होते हैं बेदार तो हों
ओम कृष्ण राहत
ग़ज़ल
दामन-ए-हस्ती में तेरे जो हैं ज़र्रे ख़ाक के
ज़र्ब-ए-अल्लाह-हू से इस मिट्टी को पुर-तनवीर कर