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ग़ज़ल
हम बयाँ रो रो के दिल का मुद्दआ' करते रहे
अहल-ए-महफ़िल मुस्कुरा कर वाह-वा करते रहे
ख़लील-उर-रहमान राज़
ग़ज़ल
नहीं जाने है वो हर्फ़-ए-सताइश बरमला कहना
मगर नज़रों ही नज़रों में वो इस का वाह-वा कहना
सबीहा सबा
ग़ज़ल
जो मिरे बद-गो हैं तुम उन को समझते हो भला
वाह-वा मुझ से तुम्हें ये बैर अच्छा पड़ गया