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ग़ज़ल
पए फ़ातिहा कोई आए क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ
कोई आ के शम्अ' जलाए क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
दिल आबाद कहाँ रह पाए उस की याद भुला देने से
कमरा वीराँ हो जाता है इक तस्वीर हटा देने से
जलील ’आली’
ग़ज़ल
जो मुनकिर-ए-वफ़ा हो फ़रेब उस पे क्या चले
क्यूँ बद-गुमाँ हूँ दोस्त से दुश्मन के बाब में