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ग़ज़ल
बाँट दी लोगों में उस ने मिरी दरयूज़ा-गरी
फिर मुझे 'अख़्तर'-ए-कम-माया से सुल्तान किया
सुल्तान अख़्तर
ग़ज़ल
'सुल्तान' असीर-ए-ज़ुल्फ़ हुए भी तो किस के आप
दिल से बहुत क़रीब हैं और जिस्म-ओ-जाँ से दूर
सुलतान फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
तू ही संग-ए-मील है अपने लिए सुल्तान-'रश्क'
अपने ही रस्ते में जो हाइल है वो पत्थर भी तू
सुलतान रशक
ग़ज़ल
मंज़िल-ए-ग़म से गुज़रना है और इस पर 'जाबिर'
दश्त-ए-वहशत में किसी शोख़ का दामाँ भी नहीं
रफ़ीक़ जाबिर
ग़ज़ल
खो चुका है उस को जब तो ख़ुद ही ऐ सुल्तान-'रश्क'
अब धड़कता है दिल-ए-बे-मुद्दआ किस के लिए
सुलतान रशक
ग़ज़ल
सर-गराँ आज हैं 'जाबिर' से सुख़न के नक़्क़ाद
कल को मेआ'र-ए-ग़ज़ल उस की फ़ुग़ाँ ठहरेगी