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नज़्म
क्या कहा बहर-ए-मुसलमाँ है फ़क़त वादा-ए-हूर
शिकवा बेजा भी करे कोई तो लाज़िम है शुऊर
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
गुमाँ ये है कि शायद बहर से ख़ारिज नहीं हूँ मैं
ज़रा भी हाल के आहंग में हारिज नहीं हूँ
जौन एलिया
नज़्म
अभी तो बहर-ओ-बर पे सो रही हैं मेरी वो सदाएँ
समेट लूँ उन्हें तो फिर वो काएनात को जगाएँ
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
मैं शाइ'र हूँ जो कि फ़ऊलुन फ़ऊलुन से बहर-ए-रमल तक
हर इक नग़मगी का मुकम्मल ख़ुदा हूँ