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शाम-ए-अयादत

फ़िराक़ गोरखपुरी

शाम-ए-अयादत

फ़िराक़ गोरखपुरी

MORE BYफ़िराक़ गोरखपुरी

    रोचक तथ्य

    (अगस्त 1943)सिविल हॉस्पिटल इलाहाबाद में बिस्तर-ए-अलालत से

    ये कौन मुस्कुराहटों का कारवाँ लिए हुए

    शबाब-ए-शेर-ओ-रंग-ओ-नूर का धुआँ लिए हुए

    धुआँ कि बर्क़-ए-हुस्न का महकता शोला है कोई

    चटीली ज़िंदगी की शादमानियाँ लिए हुए

    लबों से पंखुड़ी गुलाब की हयात माँगे है

    कँवल सी आँख सौ निगाह-ए-मेहरबाँ लिए हुए

    क़दम क़दम पे दे उठी है लौ ज़मीन-ए-रह-गुज़र

    अदा अदा में बे-शुमार बिजलियाँ लिए हुए

    निकलते बैठते दिनों की आहटें निगाह में

    रसीले होंट फ़स्ल-ए-गुल की दास्ताँ लिए हुए

    ख़ुतूत-ए-रुख में जल्वा-गर वफ़ा के नक़्श सर-ब-सर

    दिल-ए-ग़नी में कुल हिसाब-ए-दोस्ताँ लिए हुए

    वो मुस्कुराती आँखें जिन में रक़्स करती है बहार

    शफ़क़ की गुल की बिजलियों की शोख़ियाँ लिए हुए

    अदा-ए-हुस्न बर्क़-पाश शोला-ज़न नज़ारा-सोज़

    फ़ज़ा-ए-हुस्न ऊदी ऊदी बिजलियाँ लिए हुए

    जगाने वाले नग़मा-ए-सहर लबों पे मौजज़न

    निगाहें नींद लाने वाली लोरियाँ लिए हुए

    वो नर्गिस-ए-सियाह-ए-नीम-बाज़, मय-कदा-ब-दोश

    हज़ार मस्त रातों की जवानियाँ लिए हुए

    तग़ाफ़ुल-ओ-ख़ुमार और बे-ख़ुदी की ओट में

    निगाहें इक जहाँ की होशयारियाँ लिए हुए

    हरी-भरी रगों में वो चहकता बोलता लहू

    वो सोचता हुआ बदन ख़ुद इक जहाँ लिए हुए

    ज़-फ़र्क़ ता-क़दम तमाम चेहरा जिस्म-ए-नाज़नीं

    लतीफ़ जगमगाहटों का कारवाँ लिए हुए

    तबस्सुमश तकल्लुमे तकल्लुमश तरन्नुमे

    नफ़स नफ़स में थरथराता साज़-ए-जाँ लिए हुए

    जबीन-ए-नूर जिस पे पड़ रही है नर्म छूट सी

    ख़ुद अपनी जगमगाहटों की कहकशाँ लिए हुए

    ''सितारा-बार मह-चकाँ ख़ुर-फ़िशाँ'' जमाल-ए-यार

    जहान-ए-नूर कारवाँ-ब-कारवाँ लिए हुए

    वो ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म शमीम-ए-मस्त से धुआँ धुआँ

    वो रुख़ चमन चमन बहार-ए-जावेदाँ लिए हुए

    ब-मस्ती-ए-जमाल-ए-काएनात, ख़्वाब-ए-काएनात

    ब-गर्दिश-ए-निगाह दौर-ए-आसमाँ लिए हुए

    ये कौन गया मिरे क़रीब उज़्व उज़्व में

    जवानियाँ, जवानियों की आँधियाँ लिए हुए

    ये कौन आँख पड़ रही है मुझ पर इतने प्यार से

    वो भूली सी वो याद सी कहानियाँ लिए हुए

    ये किस की महकी महकी साँसें ताज़ा कर गईं दिमाग़

    शबों के राज़ नूर-ए-मह की नर्मियाँ लिए हुए

    ये किन निगाहों ने मिरे गले में बाहें डाल दीं

    जहान भर के दुख से दर्द से अमाँ लिए हुए

    निगाह-ए-यार दे गई मुझे सुकून-ए-बे-कराँ

    वो बे-कही वफ़ाओं की गवाहियाँ लिए हुए

    मुझे जगा रहा है मौत की ग़ुनूदगी से कौन

    निगाहों में सुहाग-रात का समाँ लिए हुए

    मिरी फ़सुर्दा और बुझी हुई जबीं को छू लिया

    ये किस निगाह की किरन ने साज़-ए-जाँ लिए हुए

    सुते से चेहरे पर हयात रसमसाती मुस्कुराती

    जाने कब के आँसुओं की दास्ताँ लिए हुए

    तबस्सुम-ए-सहर है अस्पताल की उदास शाम

    ये कौन गया नशात-ए-बे-कराँ लिए हुए

    तिरे आने तक अगरचे मेहरबाँ था इक जहाँ

    मैं रो के रह गया हूँ सौ ग़म-ए-निहाँ लिए हुए

    ज़मीन मुस्कुरा उठी ये शाम जगमगा उठी

    बहार लहलहा उठी शमीम-ए-जाँ लिए हुए

    फ़ज़ा-ए-अस्पताल है कि रंग-ओ-बू की करवटें

    तिरे जमाल-ए-लाला-गूँ की दास्ताँ लिए हुए

    'फ़िराक़' आज पिछली रात क्यूँ मर रहूँ कि अब

    हयात ऐसी शामें होगी फिर कहाँ लिए हुए

    (2)

    मगर नहीं कुछ और मस्लहत थी उस के आने में

    जमाल-ओ-दीद-ए-यार थे नया जहाँ लिए हुए

    इसी नए जहाँ में आदमी बनेंगे आदमी

    जबीं पे शाहकार-ए-दहर का निशाँ लिए हुए

    इसी नए जहाँ में आदमी बनेंगे देवता

    तहारतों का फ़र्क़-ए-पाक पर निशाँ लिए हुए

    ख़ुदाई आदमी की होगी इस नए जहान पर

    सितारों के हैं दिल ये पेश-गोईयाँ लिए हुए

    सुलगते दिल शरर-फ़िशाँ शोला-बार बर्क़-पाश

    गुज़रते दिन हयात-ए-नौ की सुर्ख़ियाँ लिए हुए

    तमाम क़ौल और क़सम निगाह-ए-नाज़-ए-यार थी

    तुलू-ए-ज़िंदगी-ए-नौ की दास्ताँ लिए हुए

    नया जनम हुआ मिरा कि ज़िंदगी नई मिली

    जियूँगा शाम-ए-दीद की निशानियाँ लिए हुए

    देखा आँख उठा के अहद-ए-नौ के पर्दा-दारों ने

    गुज़र गया ज़माना याद-ए-रफ़्तगाँ लिए हुए

    हम इन्क़िलाबियों ने ये जहाँ बचा लिया मगर

    अभी है इक जहाँ वो बद-गुमानियाँ लिए हुए

    (3)

    नए ज़माने में अगर उदास ख़ुद को पाऊँगा

    ये शाम याद कर के अपने ग़म को भूल जाऊँगा

    अयादत-ए-हबीब से वो आज ज़िंदगी मिली

    ख़ुशी भी चौंक चौक उठी ग़म की आँख खुल गई

    अगरचे डॉक्टर ने मुझ को मौत से बचा लिया

    पर इस के ब'अद उस निगाह ने मुझे जिला लिया

    निगाह-ए-यार तुझ से अपनी मंज़िलें मैं पाऊँगा

    तुझे जो भूल जाऊँगा तो राह भूल जाऊँगा

    (4)

    क़रीब-तर मैं हो चला हूँ दुख की काएनात से

    मैं अजनबी नहीं रहा हयात से ममात से

    वो दुख सहे कि मुझ पे खुल गया है दर्द-ए-काएनात

    है अपने आँसुओं से मुझ पे आईना ग़म-ए-हयात

    ये बे-क़ुसूर जान-दार दर्द झेलते हुए

    ये ख़ाक-ओ-ख़ूँ के पुतले अपनी जाँ पे खेलते हुए

    वो ज़ीस्त की कराह जिस से बे-क़रार है फ़ज़ा

    वो ज़िंदगी की आह जिस से काँप उठती है फ़ज़ा

    कफ़न है आँसुओं का दुख की मारी काएनात पर

    हयात क्या इन्हें हक़ीक़तों से होना बे-ख़बर

    जो आँख जागती रही है आदमी की मौत पर

    वो अब्र-ए-रंग-रंग को भी देखती है सादा-तर

    सिखा गया दुख मिरा पुरानी पीर जानना

    निगाह-ए-यार थी जहाँ भी आज मेरी रहनुमा

    यही नहीं कि मुझ को आज ज़िंदगी नई मिली

    हक़ीक़त-ए-हयात मुझ पे सौ तरह से खुल गई

    गवाह है ये शाम और निगाह-ए-यार है गवाह

    ख़याल-ए-मौत को मैं अपने दिल में अब दूँगा राह

    जियूँगा हाँ जियूँगा निगाह-ए-आश्ना-ए-यार

    सदा सुहाग ज़िंदगी है और जहाँ सदा-बहार

    (5)

    अभी तो कितने ना-शुनीदा नग़्मा-ए-हयात हैं

    अभी निहाँ दिलों से कितने राज़-ए-काएनात हैं

    अभी तो ज़िंदगी के ना-चाशीदा रस हैं सैकड़ों

    अभी तो हाथ में हम अहल-ए-ग़म के जस हैं सैकड़ों

    अभी वो ले रही हैं मेरी शाएरी में करवटें

    अभी चमकने वाली है छुपी हुई हक़ीक़तें

    अभी तो बहर-ओ-बर पे सो रही हैं मेरी वो सदाएँ

    समेट लूँ उन्हें तो फिर वो काएनात को जगाएँ

    अभी तो रूह बन के ज़र्रे ज़र्रे में समाऊँगा

    अभी तो सुब्ह बन के मैं उफ़ुक़ पे थरथराऊँगा

    अभी तो मेरी शाएरी हक़ीक़तें लुटाएगी

    अभी मिरी सदा-ए-दर्द इक जहाँ पे छाएगी

    अभी तो आदमी असीर-ए-दाम है ग़ुलाम है

    अभी तो ज़िंदगी सद-इंक़लाब का पयाम है

    अभी तमाम ज़ख़्म दाग़ है तमद्दुन-ए-जहाँ

    अभी रुख़-ए-बशर पे हैं बहमियत की झाइयाँ

    अभी मशिय्यतों पे फ़त्ह पा नहीं सका बशर

    अभी मुक़द्दरों को बस में ला नहीं सका बशर

    अभी तो इस दुखी जहाँ में मौत ही का दौर है

    अभी तो जिस को ज़िंदगी कहें वो चीज़ और है

    अभी तो ख़ून थोकती है ज़िंदगी बहार में

    अभी तो रोने की सदा है नग़मा-ए-सितार में

    अभी तो उड़ती हैं रुख़-ए-बहार पर हवाईयाँ

    अभी तो दीदनी हैं हर चमन की बे-फ़ज़ाईयाँ

    अभी फ़ज़ा-ए-दहर लेगी करवटों पे करवटें

    अभी तो सोती हैं हवाओं की वो संसनाहटें

    कि जिस को सुनते ही हुकूमतों के रंग-ए-रुख़ उड़ें

    चपेटें जिन की सरकशों की गर्दनें मरोड़ दें

    अभी तो सीना-ए-बशर में सोते हैं वो ज़लज़ले

    कि जिन के जागते ही मौत का भी दिल दहल उठे

    अभी तो बत्न-ए-ग़ैब में है इस सवाल का जवाब

    ख़ुदा-ए-ख़ैर-ओ-शर भी ला नहीं सका था जिस की ताब

    अभी तो गोद में हैं देवताओं की वो माह-ओ-साल

    जो देंगे बढ़ के बर्क़-ए-तूर से हयात को जलाल

    अभी रग-ए-जहाँ में ज़िंदगी मचलने वाली है

    अभी हयात की नई शराब ढलने वाली है

    अभी छुरी सितम की डूब कर उछलने वाली है

    अभी तो हसरत इक जहान की निकलने वाली है

    अभी घन-गरज सुनाई देगी इंक़लाब की

    अभी तो गोश-बर-सदा है बज़्म आफ़्ताब की

    अभी तो पूंजी-वाद को जहान से मिटाना है

    अभी तो सामराजों को सज़ा-ए-मौत पाना है

    अभी तो दाँत पीसती है मौत शहरयारों की

    अभी तो ख़ूँ उतर रहा है आँखों में सितारों की

    अभी तो इश्तिराकियत के झंडे गड़ने वाले हैं

    अभी तो जड़ से किश्त-ओ-ख़ूँ के नज़्म उखड़ने वाले हैं

    अभी किसान-ओ-कामगार राज होने वाला है

    अभी बहुत जहाँ में काम-काज होने वाला है

    मगर अभी तो ज़िंदगी मुसीबतों का नाम है

    अभी तो नींद मौत की मिरे लिए हराम है

    ये सब पयाम इक निगाह में वो आँख दे गई

    ब-यक-नज़र कहाँ कहाँ मुझे वो आँख ले गई

    स्रोत :
    • पुस्तक : Gul-e-Naghma (पृष्ठ 237)
    • रचनाकार : Firaq Gorakhpuri
    • प्रकाशन : Kitabi Duniya, Delhi-6 (2006)
    • संस्करण : 2006

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