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नज़्म
मैं ने मुनइ'म को दिया सरमाया दारी का जुनूँ
कौन कर सकता है इस की आतिश-ए-सोज़ाँ को सर्द
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मैं कि मिरी ग़ज़ल में है आतिश-ए-रफ़्ता का सुराग़
मेरी तमाम सरगुज़िश्त खोए हुओं की जुस्तुजू!
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ज़िंदगी की ओज-गाहों से उतर आते हैं हम
सोहबत-ए-मादर में तिफ़्ल-ए-सादा रह जाते हैं हम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वो जुनूँ जो आब-ओ-आतिश को असीर कर चुका था
वो ख़ला की वुसअ'तों से भी ख़िराज ले रहा है