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नज़्म
क्या तुम्हें कोई ए'तिराज़ है
उजले दिनों और चाँदनी चमकती रातों की आस मुझे पुर्वा की तरह
शाइस्ता हबीब
नज़्म
जो एक था ऐ निगाह तू ने हज़ार कर के हमें दिखाया
यही अगर कैफ़ियत है तेरी तो फिर किसे ए'तिबार होगा