हसन कूज़ा-गर (3)
जहाँ-ज़ाद
वो हल्ब की कारवाँ-सरा का हौज़, रात वो सुकूत
जिस में एक दूसरे से हम-किनार तैरते रहे
मुहीत जिस तरह हो दाएरे के गिर्द हल्क़ा-ज़न
तमाम रात तैरते रहे थे हम
हम एक दूसरे के जिस्म ओ जाँ से लग के
तैरते रहे थे एक शाद-काम ख़ौफ़ से
कि जैसे पानी आँसुओं में तैरता रहे
हम एक दूसरे से मुतमइन ज़वाल-ए-उम्र के ख़िलाफ़
तैरते रहे
तू कह उठी 'हसन यहाँ भी खींच लाई
जाँ की तिश्नगी तुझे!'
(लो अपनी जाँ की तिश्नगी को याद कर रहा था मैं
कि मेरा हल्क़ आँसुओं की बे-बहा सख़ावतों
से शाद-काम हो गया!)
मगर ये वहम दिल में तैरने लगा कि हो न हो
मिरा बदन कहीं हलब के हौज़ ही में रह गया
नहीं, मुझे दुई का वाहिमा नहीं
कि अब भी रब्त-ए-जिस्म-ओ-जाँ का ए'तिबार है मुझे
यही वो ए'तिबार था
कि जिस ने मुझ को आप में समो दिया
मैं सब से पहले 'आप' हूँ
अगर हमीं हों तू हो और मैं हूँ फिर भी मैं
हर एक शय से पहले आप हों!
अगर मैं ज़िंदा हूँ तो कैसे आप से दग़ा करूँ?
कि तेरे जैसी औरतें, जहाँ-ज़ाद,
ऐसी उलझनें हैं
जिन को आज तक कोई नहीं 'सुलझ' सका
जो मैं कहूँ के मैं 'सुलझ' सका तो सर-ब-सर
फ़रेब अपने आप से!
कि औरतों की साख़्त है वो तंज़ अपने-आप पर
जवाब जिस का हम नहीं
(लबीब कौन है? तमाम रात जिस का ज़िक्र
तेरे लब पे था
वो कौन तेरे गेसुओं को खींचता रहा
लबों को नोचता रहा
जो मैं कभी न कर सका
नहीं ये सच है मैं हूँ या लबीब हो
रक़ीब हो तो किस लिए तिरी ख़ुद-आगही की बे-रिया नशात-ऐ-नाब का
जो सद-नवा ओ यक-नवा खिराम-ऐ-सुब्ह की तरह
लबीब हर नवा-ऐ-साज़-गार की नफ़ी सही!)
मगर हमारा राब्ता विसाल-ए-आब-ओ-गिल नहीं, न था कभी
वजूद-ए-आदमी से आब-ओ-गिल सदा बरूँ रहे
न हर विसाल-ए-आब-ओ-गिल से कोई जाम या सुबू ही बन सका
जो इन का एक वाहिमा ही बन सके तो बन सके!
जहाँ-ज़ाद
एक तू और एक वो और एक मैं
ये तीन ज़ाविए किसी मुसल्लस-ए-क़दीम के
हमेशा घूमते रहे
कि जैसे मेरा चाक घूमता रहा
मगर न अपने-आप का कोई सुराग़ पा सके
मुसल्लस-ए-क़दीम को मैं तोड दूँ, जो तू कहे, मगर नहीं
जो सेहर मुझ पे चाक का वही है इस मुसल्लस-ए-क़दीम का
निगाहें मेरे चाक की जो मुझ को देखती हैं
घूमते हुए
सुबू-ओ-जाम पर तिरा बदन तिरा ही रंग तेरी नाज़ुकी
बरस पड़ी
वो कीमिया-गरी तिरे जमाल की बरस पड़ी
मैं सैल-ए-नूर-ए-अंदरूँ से धुल गया!
मिरे दरों की ख़ल्क़ यूँ गली गली निकल पड़ी
कि जैसे सुब्ह की अज़ाँ सुनाई दी!
तमाम कूज़े बनते बनते 'तू' ही बन के रह गए
नशात इस विसाल-ए-रह-गुज़र की ना-गहाँ मुझे निगल गई
यही प्याला-ओ-सुराही-ओ-सुबू का मरहला है वो
कि जब खमीर-ए-आब-ओ-गिल से वो जुदा हुए
तो उन को सम्त-ए-राह-ए-नौ की कामरानियाँ मिलें
मैं इक ग़रीब कूज़ा-गर
ये इंतिहा-ऐ-मारिफत
ये हर प्याला-ओ-सुराही-ओ-सुबू की इंतिहा-ए-मारिफत
मुझे हो इस की क्या ख़बर?
जहाँ-ज़ाद
इंतिज़ार आज भी मुझे है क्यूँ वही मगर
जो नौ बरस के दौर-ए-ना-सज़ा में था?
अब इंतिज़ार आँसुओं के दजला का
न गुमरही की रात का
शब-ए-गुनाह की लज़्ज़तों का इतना ज़िक्र कर चुका
वो ख़ुद गुनाह बन गईं!
हलब की कारवाँ-सारा के हौज़ का, न मौत का
न अपनी इस शिकस्त-खुर्दा ज़ात का
इक इंतिज़ार-ए-बे-अमाँ का तार है बंधा हुआ!
कभी जो चंद सानिए ज़मान-ए-बे-ज़मान में आ के रुक गए
तो वक़्त का ये बार मेरे सर से भी उतर गया
तमाम रफ़्ता ओ गुज़िश्ता सूरतों, तमाम हादसों
के सुस्त क़ाफ़िले
मिरे दरूँ में जाग उठे
मेरे दरूँ में इक जहान-ए-बाज़-याफ़्ता की रेल-पेल जाग उठी
बहिश्त जैसे जाग उठे ख़ुदा के ला-शुऊर में!
मैं जाग उठा ग़ुनूदगी की रेत पर पड़ा हुआ
ग़ुनूदगी की रेत पर पड़े हुए वो कूज़े जो
मिरे वजूद से बरूँ
तमाम रेज़ा रेज़ा हो के रह गए थे
मेरे अपने-आप से फ़िराक़ में
वो फिर से एक कुल बने (किसी नवा-ए-साज़-गार की तरह)
वो फिर से एक रक़्स-ए-बे-ज़मान बने
वो रूयत-ए-अज़ल बने!
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.