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नज़्म
हुआ ज़माना कि 'सिद्धार्थ' के थे गहवारे
इन्ही नज़ारों में बचपन कटा था 'विक्रम' का
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
एक अनार का पेड़ बाग़ में और घटा मतवारी थी
आस-पास काले पर्बत की चुप की दहशत तारी थी
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
क्या क्या अनार छोड़े हैं बिशनी हो रू-ब-रू
ऐ बी तुम अपनी कुल्हिया हमें छोड़ने को दो
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
पचास पैसे के अनार के लबों पे एक क़तरा नार रख दी
ख़ाक को ये गर्म बोसा कब नसीब था!
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
नज़्म
भई बुलाओ किसी नश्तर-ब-दसत हज्जाम को जो हजामत बनाए और फ़स्द खोले हमारी
लेकिन एक अनार और सौ बीमार
मोहम्मद हनीफ़ रामे
नज़्म
खाए आख़िर किस ने मेरे सेब अनार और बेर
मिस्टर कोई नहीं ये बोले हम को क्या मालूम
मोहम्मद शफ़ीउद्दीन नय्यर
नज़्म
गुल-ए-अनार सुर्ख़ होंटों से ज़ियादा सुर्ख़ था
पके हुए फलों की ख़ुशबुएँ थीं मुजतमा'