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नज़्म
क्या रेनी ख़ंदक़ रन्द बड़े क्या ब्रिज कंगूरा अनमोला
गढ़ कोट रहकला तोप क़िला क्या शीशा दारू और गोला
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
होते हैं बात करने में चौदह बरस तमाम
क़ाएम उमीद ही से है दुनिया है जिस का नाम
चकबस्त ब्रिज नारायण
नज़्म
है रश्क-ए-महर ज़र्रा इस मंज़िल-ए-कुहन का
तुलता है बर्ग-ए-गुल से काँटा भी इस चमन का
चकबस्त ब्रिज नारायण
नज़्म
याद तो होगी वो मटिया-बुर्ज की भी दास्ताँ
अब भी जिस की ख़ाक से उठता है रह रह कर धुआँ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
द्वारका-जी का बसाना तो मुबारक लेकिन
कर न दें ब्रिज की गलियों को फ़रामोश कहीं
चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी
नज़्म
दर्द है दिल के लिए और दिल इंसाँ के लिए
ताज़गी बर्ग-ओ-समर की चमनिस्ताँ के लिए
चकबस्त ब्रिज नारायण
नज़्म
हुब्ब-ए-क़ौमी का ज़बाँ पर इन दिनों अफ़्साना है
बादा-ए-उल्फ़त से पुर दिल का मिरे पैमाना है