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नज़्म
ख़ैर-मक़्दम के भी अंदाज़ हुआ करते हैं
वक़्त की राह में मोड़ आते हैं मंज़िल तो नहीं आ सकती
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
ख़ैर-मक़्दम को मिरे कोई ब-हंगाम-ए-सहर
अपनी आँखों में लिए शब का ख़ुमार आ ही गया
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
नावक अंदाज़ों के अंदाज़ में ग़म आ पहुँचे
ख़ैर-मक़्दम को सफ़ीरान-ए-सितम आ पहुँचे
मुसव्विर सब्ज़वारी
नज़्म
जीलानी कामरान
नज़्म
शेर-ओ-नग़्मा हैं तिरी राह-ए-तवज्जोह में बिछे
ख़ैर-मक़्दम में तिरे रंग पे है रंग-भवन
बेकल उत्साही
नज़्म
उठाई है किसी ने ख़ैर-मक़्दम के लिए चिलमन
किसी कमसिन को आज उस का रँडापा खाए जाता है