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नज़्म
आज, इस साअत-ए-दुज़दीदा-ओ-नायाब में भी,
जिस्म है ख़्वाब से लज़्ज़त-कश-ए-ख़म्याज़ा तिरा
नून मीम राशिद
नज़्म
नून मीम राशिद
नज़्म
अब भी तकती हैं मिरी राह वो काफ़िर आँखें
अब भी दुज़्दीदा नज़र जानिब-ए-दर है कि नहीं
जोश मलीहाबादी
नज़्म
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
दिक़ तुझ से किताबें हैं बहुत करम किताबी
तू दुश्मन-ए-दुज़्दीदा है ख़ाकी हो कि आबी
अज़ीज़ हामिद मदनी
नज़्म
साजिदा ज़ैदी
नज़्म
है ख़्वाबीदा जो सब्ज़ा आइना-ख़ाने में शबनम के
नफ़स-दुज़दीदा बाद-ए-सुब्ह के झोंके गुज़रते हैं
नज़्म तबातबाई
नज़्म
उम्मतें गुलशन-ए-हस्ती में समर-चीदा भी हैं
और महरूम-ए-समर भी हैं ख़िज़ाँ-दीदा भी हैं