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नज़्म
सब बुरा कहते हैं लड़ने को बुरी आदत है ये
साथ के लड़के जो हों उन से रिफ़ाक़त चाहिए
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वो जिस से तुम को मोहब्बत मिले रिफ़ाक़त भी
हज़ार एक हों दो ज़ेहन मुख़्तलिफ़ होंगे
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
यहाँ से दोस्ती की कितनी तामीरें उठाई हैं
रफ़ाक़त की हयात-अफ़रोज़ दुनियाएँ बसाई हैं
अब्दुल अहद साज़
नज़्म
इक बहन अपनी रिफ़ाक़त की क़सम खाए हुए
एक माँ मर के भी सीने में लिए माँ का गुदाज़
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
'ज़ेहरा' ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है!
दीवार पे टांगा था फ़रमान रिफ़ाक़त का