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नज़्म
मैं हर रोज़ जिन के दामन में अपनी तक़दीर की शतरंज बिछाती हूँ
उन के मुख पे खिले रंग को सिद्क़-ए-दिल से
कोमल राजा
नज़्म
वो चाहे खेल चौसर का हो या शतरंज की बाज़ी
हमेशा चाल वो चलती हैं अपनी एक घर ज़्यादा