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नज़्म
ये ज़ालिम तीसरा पैग इक अक़ानीमी बिदायत है
उलूही हर्ज़ा-फ़रमाई का सिर्र-ए-तूर-ए-लुक्नत है
जौन एलिया
नज़्म
नाम उस का पानियों में घोल कर पी लो ज़बाँ लुक्नत-ज़दा
हो जाए है, आँखें अलग चढ़ जाएँ हैं, जी कुछ कहे
बिमल कृष्ण अश्क
नज़्म
इक खुली ज़िल्लत है अदयान-ओ-मिलल के वास्ते
तौक़ है ल'अनत का तू अहल-ए-दुवल के वास्ते
जोश मलीहाबादी
नज़्म
जिसे पहाड़ों की ख़ुश्क संगीं बुलंदियों से ख़िराज भेजें
ग़ुलाम ज़ेहनों पे ऐसी लानत की रस्म रखना