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नज़्म
हदें वो खींच रक्खी हैं हरम के पासबानों ने
कि बिन मुजरिम बने पैग़ाम भी पहुँचा नहीं सकता
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
न रोग हूँ मैं कि इस की तारीकियों में ख़िफ़्फ़त से डूब जाऊँ
न मैं गुनाहगार हूँ न मुजरिम
फ़हमीदा रियाज़
नज़्म
रातें क़ातिल सुब्हें मुजरिम मुल्ज़िम है हर शाम
बाहर से चुप चुप लगता है अंदर है कोहराम
साहिर लुधियानवी
नज़्म
मुजरिम-ए-सरताबी-ए-हुस्न-ए-जवाँ हो जाइए
गुल-फ़िशानी ता-कुजा शोला-फ़िशाँ हो जाइए