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नज़्म
गर मिरा हर्फ़-ए-तसल्ली वो दवा हो जिस से
जी उठे फिर तिरा उजड़ा हुआ बे-नूर दिमाग़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ये सब कुछ है मगर हस्ती मिरी मक़्सद है क़ुदरत का
सरापा नूर हो जिस की हक़ीक़त मैं वो ज़ुल्मत हूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
क़ल्ब ओ नज़र की ज़िंदगी दश्त में सुब्ह का समाँ
चश्मा-ए-आफ़्ताब से नूर की नद्दियाँ रवाँ!
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अदाएँ ले के आई है वो फ़ितरत के ख़ज़ानों से
जगा सकती है महफ़िल को नज़र के ताज़्यानों से