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नज़्म
अभी तो ज़िंदगी के ना-चाशीदा रस हैं सैकड़ों
अभी तो हाथ में हम अहल-ए-ग़म के जस हैं सैकड़ों
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
तुम्हें गर चूम लूँ
तो मेरे होंटों पर उलूही आसमानी ना-चशीदा ज़ाइक़े यूँ फैल जाते हैं
रहमान फ़ारिस
नज़्म
ख़ून-चाशीदा सदियों का वो घोर-अँधेरा बिखर गया
जंग-ओ-जदल का जज़्बा जागा अम्न का परचम उतर गया
अख़्तर राही
नज़्म
उम्मतें गुलशन-ए-हस्ती में समर-चीदा भी हैं
और महरूम-ए-समर भी हैं ख़िज़ाँ-दीदा भी हैं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
''ताज़ आग़ोश-ए-विदाइ'श दाग़-ए-हैरत चीदा अस्त
हम-चू शम-ए-कुश्ता दर-चश्म-ए-निगह ख़्वाबीदा अस्त''