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नज़्म
वो बोला सुन के तेरा गया है शुऊ'र क्या
कश्फ़-उल-क़ुलूब और ये कश्फ़-उल-क़ुबूर क्या
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
नहीं, मैं नहीं देख सकता वो ग़ैर-मनक़ूता नुक़्ता
जो कश्फ़ से अरीज़ है और मुराक़बे से वसीअ!
अहमद जावेद
नज़्म
जिसे आवाज़ पर अपना निशाना दाग़ने का कश्फ़ आता था
निज़ामुद्दीन से रूहानियत का दर्स ले कर
बलराज कोमल
नज़्म
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा