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नज़्म
काले कोस ग़म-ए-उल्फ़त के और मैं नान-ए-शबीना-जू
कभी चमन-ज़ारों में उलझा और कभी गंदुम की बू
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
ये फिर कौन से मा'रके का इरादा
तुम्हारी नसों में ये किस ख़्वाब-ए-फ़ातेह का फिर बाब-ए-वहशत खुला है
रफ़ीक़ संदेलवी
नज़्म
मगर वो जज़ीरा अजब दलदलों का सफ़र है
कि सौ कोस जाएँ तो जैसे फ़क़त दो क़दम ही चले हैं