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नज़्म
ये वो जमुना है जहाँ इक बानु-ए-पर्दा-नशीं
आगरा में महव-ए-आसाइश है जो ज़ेर-ए-ज़मीं
सुरूर जहानाबादी
नज़्म
जा के होते हैं मसाजिद में सफ़-आरा तो ग़रीब
ज़हमत-ए-रोज़ा जो करते हैं गवारा तो ग़रीब
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जी में आता है कि अब अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उन को पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी तोड़ दूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
देखो ये क़ुदरत-ए-चमन-आरा-ए-रोज़गार
वो अब्र-ओ-बाद ओ बर्फ़ में रहते हैं बरक़रार
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
ख़्वाबों के गुलिस्ताँ की ख़ुश-बू-ए-दिल-आरा है
या सुब्ह-ए-तमन्ना के माथे का सितारा है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ज़मीं के देवताओं की कनीज़-ए-अंजुमन-आरा
हमेशा ख़ून पी कर हड्डियों के रथ में चलती है