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नज़्म
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी
ब-रब्ब-ए-काबा उस की याद में उम्रें गँवा दूँगा
अख़्तर शीरानी
नज़्म
जोगी भी जो नगर नगर में मारे मारे फिरते हैं
कासा लिए भबूत रमाए सब के द्वारे फिरते हैं
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
आज़ाद फ़िक्र से हूँ उज़्लत में दिन गुज़ारूँ
दुनिया के ग़म का दिल से काँटा निकल गया हो
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं
ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में