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नज़्म
रियाज़-ए-दहर में ना-आश्ना-ए-बज़्म-ए-इशरत हूँ
ख़ुशी रोती है जिस को मैं वो महरूम-ए-मसर्रत हूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जब तिरे दामन में पलती थी वो जान-ए-ना-तवाँ
बात से अच्छी तरह महरम न थी जिस की ज़बाँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वो जो तन्हाई का दुख था तल्ख़ महरूमी का दुख
जिस ने हम को दर्द के रिश्ते में पैवस्ता किया
अहमद फ़राज़
नज़्म
आदमी मिन्नत-कश-ए-अरबाब-ए-इरफ़ाँ ही रहा
दर्द-ए-इंसानी मगर महरूम-ए-दरमाँ ही रहा
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
कितनी महरूम निगाहें हैं तुझे क्या मालूम
कितनी तरसी हुई बाहें हैं तुझे क्या मालूम