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नज़्म
इस तरह लरज़े में है बुनियाद-ए-ऐवान-ए-फ़रंग
खा चुके हैं मात गोया शीशा-बाज़ान-ए-फ़रंग
जगन्नाथ आज़ाद
नज़्म
दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ लर्ज़ां हैं
तेरी आवाज़ के साए तिरे होंटों के सराब
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
साक़ी फ़ारुक़ी
नज़्म
वो चाहे अजनबी हो, यही लगता है वो मेरे वतन का है
बड़ी शाइस्ता लहजे में किसी से उर्दू सुन कर
गुलज़ार
नज़्म
मगर जो बोली तो उस के लहजे में वो थकन थी
कि जैसे सदियों से दश्त-ए-ज़ुल्मत में चल रही हो