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नज़्म
कभी के तेरी महफ़िल से मोहब्बत के रतन निकले
सितम है इस गुलिस्ताँ से तिरे सब हम-वतन निकले
नारायण दास पूरी
नज़्म
उल्फ़त से गर्म सब के दिल-ए-सर्द हों बहम
और जो कि हम-वतन हों वो हमदर्द हों बहम
मोहम्मद हुसैन आज़ाद
नज़्म
ऐ काश हो ये कलिमा फिर हिर्ज़-ए-जाँ हमारा
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा