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नज़्म
दरमियाँ था जो हर्फ़-ए-शीरीं का क़िस्सा
वो दर्द-आश्ना लम्हा, वो ममता से लबरेज़ रिश्ता
परवेज़ शहरयार
नज़्म
चमकते हुए सब बुतों को मिटा दो
कि अब लौह-ए-दिल से हर इक नक़्श हर्फ़-ए-ग़लत की तरह मिट चुका है
फ़ख़्र-ए-आलम नोमानी
नज़्म
यहीं की थी मोहब्बत के सबक़ की इब्तिदा मैं ने
यहीं की जुरअत-ए-इज़हार-ए-हर्फ़-ए-मुद्दआ मैं ने