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नज़्म
कुछ देर को नब्ज़-ए-आलम भी चलते चलते रुक जाती है
हर मुल्क का परचम गिरता है हर क़ौम को हिचकी आती है
आनंद नारायण मुल्ला
नज़्म
हिचकी ले कर फिर ख़ुद ही मर जाते हैं
दिल की धड़कन सच्चाई के तल्ख़ धुएँ को गहरा करती पैहम बढ़ती जाती है
बाक़र मेहदी
नज़्म
अर्श सिद्दीक़ी
नज़्म
आख़िरी हिचकी में दीदार-ए-सनम हो तो कहीं नज़्म बने
उजड़े आँगन के अहाते में तेरी आमद हो