ज़िंदा आदमी से कलाम
कभी वक़्त की साँस में
होंट उलझा के देखे हैं तुम ने
कि इस बद-गुमाँ मौसमों के मुग़न्नी की तानें
निहाँ ख़ाना-ए-दिल में
गहरी ख़मोशी की हैबत गिराती चली जा रही हैं
अज़ल से अबद तक बिफरते हुए
सैल-ए-बे-माइगी में कभी
दिल उखड़ते हुए शहर गिरते हुए
देख पाए हो तुम
कभी भीगे भीगे से दीवार-ओ-दर में
कि बचपन की गलियों मकानों में
बारिश की आवाज़ से दिल दहलते हुए
किसी मुश्तरक ख़ौफ़ की आहटों से
धड़कते हुए बाम-ओ-दर और ज़ीने
मुसलसल हवा और बारिश की आवाज़ चलती हुई
कभी मुँह-अँधेरे की तक़्दीस में
दूर से आती गाड़ी की सीटी को सुनते हुए
तुम ने सोचा है उन के लिए
जिन के क़दमों में मंज़िल
मुसलसल अज़ाब और ख़्वाबों से ता'बीर तक दूर है
कभी शाम की सनसनाती हवा में
ठिठुरती ख़मोशी की सहमी सदा सुन के
दरवाज़ा खोला है उन के लिए
जिन के हाथों की लर्ज़िश में दस्तक नहीं
मुझे पूछना है
कि खुलते हुए फूल चलती हवा
और गुज़रे मह-ओ-साल की दस्तकों पर
न हो सकने वालों पे आँसू बहाए हैं तुम ने
कि मैं
रात की एक हिचकी में ठहरी हुई साँस हूँ
और तुम्हारी घनी नींद के बाज़ुओं से
फिसलता हुआ लम्स हूँ
- पुस्तक : Aakhrii Din Se pehle (पृष्ठ 84)
- रचनाकार : Abrar Ahmed
- प्रकाशन : Tahir Aslam Gora, Gora Publishers (1997)
- संस्करण : 1997
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.