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नज़्म
बह के मशकीज़ा-ए-अब्र से कितनी बूँदें ज़मीं की ग़िज़ा बन गईं
ग़ैर-मुमकिन था उन का शुमार
शकेब जलाली
नज़्म
आँख उन से जब मिली तो मिल गया दिल को क़रार
चाँद-तारों में किया करता था मैं उन का शुमार
अफ़रोज़ आलम
नज़्म
ये क़यामत के हवसनाक ग़ज़ब के ख़ूँ-ख़ार
इन के इस्याँ की न हद है न जराएम का शुमार
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
कितने मह-पारे हुए ख़ुद मिरी ज़ुल्मत का शिकार
कौन कर सकता है अब मेरे गुनाहों का शुमार
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
कि न उन का कोई शुमार है न हिसाब है
इन्ही पैकरों में है जा-ब-जा वो तिलिस्म-ए-अक्स-ए-जमाल भी
ज़िया जालंधरी
नज़्म
क्यूँकि जो सब का है उस का भी है वो पर्वरदिगार
ख़्वेश-परवर हाकिमों में हो गया मेरा शुमार
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
किसे गुमाँ था कि आसमाँ से ज़मीं पे पैग़ाम आ सकेंगे
पयम्बरों की जमाअतों में हम आदमी का शुमार होगा