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नज़्म
जब दिन ढल जाता है, सूरज धरती की ओट में हो जाता है
और भिड़ों के छत्ते जैसी भिन-भिन
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
कहाँ तक ऐ सितमगर चर्ख़ तदबीरें ग़ुलामी की
कि अब बार-ए-गराँ है दिल को ज़ंजीरें ग़ुलामी की