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नज़्म
कि इस निस्बत से ज़हर ओ ज़ख़्म को सहना ज़रूरी है
अजब ग़ैरत से ग़ल्तीदा-ब-ख़ूँ रहना ज़रूरी है
जौन एलिया
नज़्म
दिन-भर कॉफ़ी-हाउस में बैठे कुछ दुबले-पतले नक़्क़ाद
बहस यही करते रहते हैं सुस्त अदब की है रफ़्तार
हबीब जालिब
नज़्म
मैं कि ख़ुद अपनी ही आवाज़ के शो'लों का असीर
मैं कि ख़ुद अपनी ही ज़ंजीर का ज़िंदानी हूँ
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
सुना है तुम ने अपने आख़िरी लम्हों में समझा था
कि तुम मेरी हिफ़ाज़त में हो मेरे बाज़ुओं में हो