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नज़्म
मैं सब सुनता मगर ये दिल ही दिल में सोचता रहता
मिरे अहबाब क्या जानें कि मुझ पर क्या गुज़रती है
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
भला क्यूँ हो मिरे एहसास के अस्बाब में कुछ भी
तुम्हारा बाप यानी मैं अबस मैं इक अबस-तर मैं
जौन एलिया
नज़्म
हक़ अदा करता रहूँ माँ-बाप का अहबाब का
दूसरों को भी मिरी जैसी सआ'दत कर अता