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नज़्म
औरों के लिए तो जीना ही ख़ुद अपने लिए भी जीना है
जीने की हर तरह से तमन्ना हसीन है
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
जो पार उतारे औरों को उस की भी पार उतरनी है
जो ग़र्क़ करे फिर उस को भी डुबकों डुबकों करनी है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
हुस्न हो जाएगा जब औरों का वक़्फ़-ए-ख़ास-ओ-आम
दीदनी होगा तिरे ख़ल्वत-कदे का एहतिमाम
जोश मलीहाबादी
नज़्म
अपनों के लिए जाम-ओ-सहबा औरों के लिए शमशीर-ओ-तबर
नर्द-ओ-इंसाँ टपती ही रही दुनिया की बिसात-ए-ताक़त पर