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नज़्म
तिरे ज़ेर-ए-नगीं घर हो महल हो क़स्र हो कुछ हो
मैं ये कहता हूँ तू अर्ज़-ओ-समा लेती तो अच्छा था
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
तुझ को कितनों का लहू चाहिए ऐ अर्ज़-ए-वतन
जो तिरे आरिज़-ए-बे-रंग को गुलनार करें
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
उसी ज़माने में कहते हैं मेरे दादा ने
जब अर्ज़-ए-हिन्द सिंची ख़ून से ''सपूतों'' के
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
ज़ेर-ए-लब अर्ज़ ओ समा में बाहमी गुफ़्त-ओ-शुनूद
मिशअल-ए-गर्दूं के बुझ जाने से इक हल्का सा दूद
जोश मलीहाबादी
नज़्म
उस दौर से इस दौर के सूखे हुए दरियाओं से
फैले हुए सहराओं से और शहरों के वीरानों से