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नज़्म
कितने ही हम से रूप के रसिया आए यहाँ और चल भी दिए
तुम हो कि इतने हुस्न के होते एक न दामन थाम सके
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
फीका है जिस के सामने अक्स-ए-जमाल-ए-यार
अज़्म-ए-जवाँ को मैं ने वो ग़ाज़ा अता किया
आल-ए-अहमद सुरूर
नज़्म
है बहर-ए-इल्म तेरी रवानी से सर-बसर
दामान-ओ-जेब-ए-उर्दू-ओ-हिन्दी हैं पुर-गुहर
रंगेशवर दयाल सक्सेना सूफ़ी
नज़्म
ये कस दयार-ए-अदम में मुक़ीम हैं हम तुम
जहाँ पे मुज़्दा-ए-दीदार-ए-हुस्न-ए-यार तो क्या
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
दामन-ए-तीरीकी-ए-शब की उड़ाती धज्जियाँ
क़स्र-ए-ज़ुल्मत पर मुसलसल तीर बरसाती हुई