उठ कि मिटा जाता है क़ौम का सारा वक़ार
दामन-ए-इज़्ज़-ओ-वक़ार
दस्त-ए-ग़ुलामी से तार
हो भी ज़रा होशियार
मर्द-ए-ज़लालत-शिआ'र
उठ कि मिटा जाता है क़ौम का सारा वक़ार
नूर-ए-गुहर-बार बन पर्दा-ए-ज़ुल्मत नहीं
लम्हा-ए-राहत नहीं
अर्सा-ए-इशरत नहीं
पहली सी रिफ़अत नहीं
अगली सी शौकत नहीं
नूर-ए-गुहर-बार बन पर्दा-ए-ज़ुल्मत नहीं
तू वही इंसान है ता-ब-फ़लक जो गया
रिफ़अत-ए-परवाज़ ला
औज-ए-सुरय्या पे जा
सरमदी नग़्मा सुना
सोते हुओं को जगा
तू वही इंसान है ता-ब-फ़लक जो गया
सोज़ नहीं साज़ बन ग़ैब की आवाज़ बन
मुल्क का शहबाज़ बन
क़ौम का दम-साज़ बन
सूरत-ए-ए'जाज़ बन
ताक़त-ए-परवाज़ बन
सोज़ नहीं साज़ बन ग़ैब की आवाज़ बन
क़ौम तबाह और तू हैफ़ कि ख़ामोश है
दिल में न कुछ जोश है
महव-ए-ग़म-ए-दोश है
ऐश में मदहोश है
अहद-फ़रामोश है
क़ौम तबाह और तू हैफ़ कि ख़ामोश है
नींद के मातो उठो फेंक दो जाम-ओ-अयाग़
बुझ गया क़ौमी चराग़
लुट गया मिल्लत का बाग़
धो भी दो ज़ुल्मत का दाग़
दिल का लगाओ सुराग़
नींद के मातो उठो फेंक दो जाम-ओ-अयाग़