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नज़्म
अस्ल जो इबारत हो पस नविश्त हो जाए
फ़स्ल-ए-गुल के आख़िर में फूल उन के खुलते हैं
अमजद इस्लाम अमजद
नज़्म
और आख़िर बोद जिस्मों में सर-ए-मू भी न था
जब दिलों के दरमियाँ हाइल थे संगीं फ़ासले
नून मीम राशिद
नज़्म
निकलते बैठते दिनों की आहटें निगाह में
रसीले होंट फ़स्ल-ए-गुल की दास्ताँ लिए हुए
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
अब वो आँखों के शगूफ़े हैं न चेहरों के गुलाब
एक मनहूस उदासी है कि मिटती ही नहीं
अमजद इस्लाम अमजद
नज़्म
बंद है कमरे के अंदर गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार
क्या ख़बर आई ख़िज़ाँ कब कब गई फ़स्ल-ए-बहार