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नज़्म
अपने परवानों को फिर ज़ौक़-ए-ख़ुद-अफ़रोज़ी दे
बर्क़-ए-देरीना को फ़रमान-ए-जिगर-सोज़ी दे
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तुलू-ए-सुब्ह-ए-फ़र्दा की मुनादी भी ज़रा सुन लो
ये एटम जब फटेगा तो क़यामत चार-सू होगी
कैलाश माहिर
नज़्म
ज़माना गुज़रा कि फ़रहाद ओ क़ैस ख़त्म हुए
ये किस पे अहल-ए-जहाँ हुक्म-ए-संग-बारी है
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
फिर बर्क़ फ़रोज़ाँ है सर-ए-वादी-ए-सीना
फिर रंग पे है शोला-ए-रुख़्सार-ए-हक़ीक़त
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मार्क्स के इल्म ओ फ़तानत का नहीं कोई जवाब
कौन उस के दर्क से होता नहीं है फ़ैज़-याब
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
'ज़ेहरा' ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है
हालाँकि दर-ईं-अस्ना क्या कुछ नहीं देखा है