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नज़्म
इक दिन फिर भी तुम्हारे साथ इस ख़ाक के तख़्ते तक जाऊँगा
जिस से ढके हुए बे-नूर गढ़ों में
मजीद अमजद
नज़्म
लगा कार-ख़ानों के भोंपू गधों की तरह रेंगते हों
लगा जैसे प्रेशर-कुकर में ग़िज़ाओं का दम घुट रहा हो