शाएरी मत करो
काँटों के ताज चुनो
या
जब सच की राह चलो
लफ़्ज़ों के पेच-ओ-ताब में उल्लू न बनो
शाएरी मत करो!
मोटे-झोटे यजमानों की झिड़कियां हों
या काहिल रिया-कार अफ़सरों का फटकारें
या फिर
दुबली-पतली दिक़-ज़दा बीवियों के ताने हों
या तोता-चश्म अय्यार रुत बदली
महबूबाओं की झूटी मुस्कुराहटें
ख़ामोश रहो
हर शय को
क़ुदरत का करिश्मा समझो
पर ख़ुदा के लिए
भगवान के लिए
शैतान के लिए
शाएरी मत करो
मंज़र पस-मंज़र
ख़ामोश होता है
पेड़ साकित खड़े रहते हैं
पत्ते हिलते हैं
पर न उड़ते हैं
कहीं दूर से रेल की सीटियाँ उभरती हैं
और नज़दीक के रेस-कोर्स से
भागते तेज़ाबी घोड़ों की टापों से ज़ियादा
नौ-दोलतिए गधों की चीख़-ओ-पुकार से
कान फटने लगते हैं
हर कहीं कानों को
रूई मयस्सर नहीं आती है
कम-अज़-कम
आँखें मूँद लो
(ये तुम्हारे बस में है)
अँधियारे में आवाज़ें ज़ाइल हो जाएँगी
ज़ेहन के काले पर्दे पर
कोई तस्वीर नहीं उभरेगी
कानों में
कोई आवाज़ नहीं आएगी
गूँगे बहरे अंधे हो जाओ
शाएरी मत करो
और अँधियारे में दूर तलक देखते जाओ
देर तलक
बे-सुब्ह-ओ-शाम
बे-जिस्म-ओ-जान
आकाश आसमान
देखते जाओ
शायद इसी लम्हे
या कल परसों
या सदियाँ गुज़र जाने के ब'अद
ज़मीन उड़ जाने
आसमान बिखर जाने के ब'अद
हर शय के मर जाने के ब'अद
धूल सिमट जाएगी
धुँद मिटेगी
अँधियारे में चारों जानिब
आईना उभरेगा
कानों में नुक़रई घंटियों के मद्धम नग़्मों
की शराबों का नश्शा गूँजेगा
चारों सम्त सुनहरी सफ़ेद मोती
सा चमकता चेहरा उभरेगा
चारों जानिब सर-सुगंध की मालाएँ
लहराएँगी
नित-नवेली सदा की दोशीज़ा
शाएरी की पालकी पर सवार आएगी
मुझ को
दूर बिदेस ले जाएगी
- पुस्तक : saughat-pahli-kitab-magazines (पृष्ठ 374)
- संस्करण : 1991
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