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नज़्म
काले कोस ग़म-ए-उल्फ़त के और मैं नान-ए-शबीना-जू
कभी चमन-ज़ारों में उलझा और कभी गंदुम की बू
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
छूत की इक बीमारी फैली एक दफ़ा उन कानों में
भूक के कीड़े सुनते हैं निकले गंदुम के दानों में
गुलज़ार
नज़्म
गंदुम-ए-ख़ल्वत-नशीं बाज़ार में लाया गया
और ज़ख़ीरा-बाज़ से चक्की में पिसवाया गया
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
अब खेतों में गंदुम ही नहीं सोना भी उगेगा ऐ साक़ी
बख़्शेगा तग़य्युर भूखों को इक रोज़ मिज़ाज-ज़ार्राती
साग़र निज़ामी
नज़्म
बोला नक़्क़ाद नज़र आते यही कुछ हम तुम!
ख़ुल्द में हज़रत-ए-आदम जो न खाते गंदुम