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नज़्म
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
नज़्म
जा के होते हैं मसाजिद में सफ़-आरा तो ग़रीब
ज़हमत-ए-रोज़ा जो करते हैं गवारा तो ग़रीब
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
इस मुफ़्लिसी की ख़्वारियाँ क्या क्या कहूँ मैं हाए
मुर्दे को बे कफ़न के गड़ाती है मुफ़्लिसी
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
पहलू-ए-शाह में ये दुख़्तर-ए-जम्हूर की क़ब्र
कितने गुम-गश्ता फ़सानों का पता देती है