नूर-जहाँ के मज़ार पर
पहलू-ए-शाह में ये दुख़्तर-ए-जम्हूर की क़ब्र
कितने गुम-गश्ता फ़सानों का पता देती है
कितने ख़ूँ-रेज़ हक़ाएक़ से उठाती है नक़ाब
कितनी कुचली हुई जानों का पता देती है
कैसे मग़रूर शहंशाहों की तस्कीं के लिए
साल-हा-साल हसीनाओं के बाज़ार लगे
कैसे बहकी हुई नज़रों के तअय्युश के लिए
सुर्ख़ महलों में जवाँ जिस्मों के अम्बार लगे
कैसे हर शाख़ से मुँह-बंद महकती कलियाँ
नोच ली जाती थीं तज़ईन-ए-हरम की ख़ातिर
और मुरझा के भी आज़ाद न हो सकती थीं
ज़िल्ल-ए-सुबहान की उल्फ़त के भरम की ख़ातिर
कैसे इक फ़र्द के होंटों की ज़रा सी जुम्बिश
सर्द कर सकती थी बे-लौस वफ़ाओं के चराग़
लूट सकती थी दमकते हुए हाथों का सुहाग
तोड़ सकती थी मय-ए-इश्क़ से लबरेज़ अयाग़
सहमी सहमी सी फ़ज़ाओं में ये वीराँ मरक़द
इतना ख़ामोश है फ़रियाद-कुनाँ हो जैसे
सर्द शाख़ों में हवा चीख़ रही है ऐसे
रूह-ए-तक़्दीस-ओ-वफ़ा मर्सियाँ-ख़्वाँ हो जैसे
तू मिरी जान मुझे हैरत ओ हसरत से न देख
हम में कोई भी जहाँ-नूर ओ जहां-गीर नहीं
तू मुझे छोड़ के ठुकरा के भी जा सकती है
तेरे हाथों में मिरे हाथ हैं ज़ंजीर नहीं
- पुस्तक : Kulliyat-e-Sahir (पृष्ठ 113)
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