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नज़्म
यूँ गुमाँ होता है गरचे है अभी सुब्ह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
हल्क़ा-ए-ज़ुल्फ़ कहीं गोशा-ए-रुख़्सार कहीं
हिज्र का दश्त कहीं गुलशन-ए-दीदार कहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
आलम-ए-सोज़-ओ-साज़ में वस्ल से बढ़ के है फ़िराक़
वस्ल में मर्ग-ए-आरज़ू! हिज्र में ल़ज़्जत-ए-तलब!
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ये अपना इशक़-ए-हम-आग़ोश जिस में हिज्र ओ विसाल
ये अपना दर्द कि है कब से हमदम-ए-मह-ओ-साल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
है किब्रिया की शान गुज़रते ही माह-ओ-साल
ख़ुद दिल से दर्द-ए-हिज्र का मिटता गया ख़याल
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
किस ने वस्ल का सूरज देखा किस पर हिज्र की रात ढली
गेसुओं वाले कौन थे क्या थे उन को क्या जतलाओगे