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नज़्म
एक दिन हज़रत-ए-हाफ़िज़ ने ये देखा मंज़र
तौक़-ए-ज़र्रीं से मुज़य्यन है हमा गर्दन-ए-ख़र
रज़ा नक़वी वाही
नज़्म
यूँ तो हर शाइ'र की फ़ितरत में है कुछ दीवानगी
ग़ैर ज़िम्मेदारियाँ हैं उस की जुज़्व-ए-ज़िंदगी
रज़ा नक़वी वाही
नज़्म
अपने दिल को दोनों आलम से उठा सकता हूँ मैं
क्या समझती हो कि तुम को भी भुला सकता हूँ मैं